Monday 27 August 2012

Kavi Shiromani Pandit Mange Ram Sangi

पंडित मांगे राम जी का हरियाणा की  लोक कला सांग विद्या के प्रति आकर्षित होना भी आश्चर्य का विषय है,क्योंकि उनके परिवार का मुख्य कार्य खेती-बाड़ी था|उनके नाना पंडित उदमीराम जी के पास दादा लाही ६० बीघे  के करीब उपजाऊ जमीन थी|घर में रूपये-धेली की मौज  थी|
             अपने युवा जीवन में प्रथम शादी के बाद,उनके नाना जी ने काम धंधे को चलाने के लिए एक मोटर गाडी उनको खरीद के दे दी|मोटर गाड़ियों की उस समय भारत में शुरुआत थी|पंडित मांगे राम जी के ट्रांसपोर्ट समूह में बहन भगवती देवी रोहट वाली एवं दो-तीन और मोटर गाड़ियों वाले थे|इनका अड्डा सोनीपत में अग्रवाल धर्मशाला के आस-पास होता था|
              लेकिन विधि के विधान को कोई नही बदल सका,एक ऐसा बहाना बना जिसने  पंडित मांगे राम जी का सब कुछ बदल के रख दिया|जहां पर उनकी गाड़ियाँ खड़ी होती थी,वहां कुछ नाइयों की दूकान थी|एक बार वे सभी नाई मिलकर लोक मनोरंजन के लिए पंडित लख्मीचंद जी को सांग करने के लिए आमंत्रित किया|सांग का बेड़ा वहां पहुंच कर सांग करना शुरू कर दिया|कोई चार पांच साग करने के बाद हिसाब-किताब करके रुपयों के लेन-देन पर उन नाइयों और पंडित लख्मीचंद जी में आपस में कहासुनी हो गयी|पंडित लख्मीचंद जी सुरापान करते थे|उनको जल्दी गुस्सा आ गया|आपस की कहासुनी मारपीट में बदल गयी|वहीं पर पंडित मांगे राम जी की मुहबोली बहन भगवती देवी रोहट वाली खड़ी थी|वह हालात,को कहासुनी से लेकर मारपीट शुरू होने तक देख रही थी|
               यह एक सयोंग ही था|बल्कि| मैं तो इस घटना को सुयोग कहूँगा की पंडित मांगे राम जी अपनी गाडी से कहीं बाहर से आकर रोहतक अड्डे पर पहुंच गये|उनको आया देख कर भगवती देवी अपने मुंह बोले भाई के पास जा कर बोली-"ए भाई मांगे इन नाइयां ने तेरे बामण भाई लखमी के साथ रोल्ला कर दिया है,अर उनके पुरे रूपये भी ना दिए"|बस भगवती देवी के इतना कहने पर वे खुद व उनके साथी साथ हो गये और वहां जाकर नाइयों को जोर देकर समझाया|इस प्रकार पंडित लख्मीचंद जी के जो बाकी लेन-देन बनता था उनको दिलवाया और नाइयों ने पंडित लख्मीचंद से माफ़ी भी मांगी|
              पंडित लख्मीचंद जी ने पंडित मांगे राम जी को पहचान  लिया की आदमी तो काम का है|इसके बाद आपस में सभी ने मिलकर जश्न मनाया|इसी ख़ुशी में भगवती बहन ने कहा-"ए भाई मांगे राम,ल्या मैं तम राजी हो तै लख्मीचंद के सांग हम भी करवाल्यां"|लाडली बहन की बात को कोण टाल सकता था|उस समय चाँदी के सिक्कों का चलन था और अंग्रेजी राज था,उन्होंने मंजूरी लेकर लख्मीचंद जी के सांग करवाने शुरू कर दिए|ये सन १९३०-१९३१ की बात थी|इसके बाद सांग हुए तो रुपया धेली लोगो ने नही दिया|पंडित मांगे राम जी सोच में पड़ गये,उन्होंने ये अपना विचार बहन भगवती देवी को बताया कि हम सबकी बेज्जती हो जाएगी यदि पंडित जी के सांग में रूपये नही आये तो|भगवती देवी सोच विचार करके अपने भाई मांगेराम जी से बोली-"भाई एक बात में कर सकूं हूँ,मैं पंडित जी ने१०० रूपये रोज द्युंगी सांग में पर मेरी बात सुण ले भाई,सांग खत्म होने के बाद एक रुपया में छोड़ द्युंगी अर ९९ रूपये उल्टे ले लुंगी,देख ले भाई,या बात मंजूर हो तै सांग में रूपये द्युंगी"|बस इसके बाद उनकी आपस में बात हो गयी और पंडित लख्मीचंद जी के लगातार २० सांग करवाए|
              इस दोरान पंडित मांगे राम जी की लख्मीचंद जी के साथ दोस्ती हो गयी और ज्यादा गहराई में गये तो,आपस में दूर-पास की रिश्तेदारी निकल आई|जैसा की ब्रहामणों में अक्सर होता है|इस रिश्तेदारी के नाते  में पंडित लख्मीचंद जी पंडित मांगे राम जी को चाचा कहने लगे|पंडित लख्मीचंद जी के सांगो में उनकी सटिक रागनी व छन्द रचनाओं पर मांगे राम जी मोहित हो गये और उनमें सांग के प्रति एक लगाव पैदा हो गया|और वे लख्मीचंद जी के बेड़े को जहां भी वे सांग करते वहीं छोड़ने चले जाते|और उनकी सांग के प्रति रूचि बढती गयी और बाद में ये उनका जनून बन गया|


लेखक की प्रार्थना
-"मैं नव्रत्तन शर्मा सुपुत्र श्री पंडित मांगे राम सांगी,जो मैंने शब्द उपर लिखें हैं ये बातें पंडित मांगे राम जी ने अपने लंगोटिया यार बलमत जाट को १९६५ में बैठक में बैठे थे तब ये जिक्र चला था|लख्मीचंद जी के बारे में तब पंडित मांगे राम जी ने सारा वृत्तांत बताया|उस समय मैं १३ साल का था|उनके पास बैठ कर उनकी बातें सुन रहा था|उसी आधार पर जो मैंने सुना वही लिख दिया|
मैं लेखक नही हूँ सिर्फ आपको बताने के लिए लिखना पड़ा और किसी भी जानी-अनजानी गलती के लिए क्षमा करें,धन्यवाद|(copy right 2012)


Sahil Kaushik,
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sahilkshk6@gmail.com




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